पृष्ट संख्या 62
- ७. अलग-अलग कोटि के प्रेत-समुदायों का सफाया अलग-अलग देवी-देवताओं के द्वारा होना तय रहता है। भगवान की अनन्य कृपा मूर्त होकर साधक की प्रेतबाधा की निवृत्ति विविध यज्ञानुष्ठानों से करती है।
- ८. परिवेश में व्याप्त सूक्ष्मशरीरी चित्तगत भय, अशुचितादि के आश्रय से मनुष्य को प्रभावित करते हैं । ऐसी अवस्थामें चित्त वृत्तियों को शुद्ध करना, तपस्या के द्वारा स्वयं को बलवान करना चाहिए। जब मनुष्य की आन्तरिक शक्ति प्रेत की शक्ति से बलवती हो जाती है तो प्रेत स्वत: पलायन कर जाता है ।
- ९. अशुचि स्थान, पात्र के आश्रयी प्रेतों के निवारण हेतु निवास स्थान को सदैव गंदगी, जूठन, बदबू से अलग स्वच्छ, सुगंधित, पवित्र, प्रकाशित, गंगाजल से अभिषिक्त, दैव-प्रतिमा, प्रतीक-चित्रों से संयुक्त, वास्तुदोष से रहित रखें ।
- १०. अशुद्ध चित्त वाले व्यक्ति के स्पर्श से बचें, उनके द्वारा प्राप्त अन्न, वस्त्रादि उपहार के उपभोग से बच्चें ।
- ११. हालाँकि प्रेतबाधा से उत्पन्न रोगों का उपचार गुह्यवादी के द्वारा ही होता है किंतु जब दीर्घकाल तक मानसिक-प्राणिक रोगों से कोई आक्रान्त हो तो उसे चिकित्सकों से भी सलाह लेनी चाहिए । औषधि का उचित सेवन प्रेतबाधा के प्रकोप को दूर करने में सहायक है।