पारंपरिक अनुष्ठानों का आयोजन होता है; दैनिक, पाक्षिक, मासिक एवं वार्षिक पूजन कमों को प्रमादरहित होकर संपादित किया जाता है उनके कुल देवी-देवता कुल के संततियों की रक्षा करते हैं। ये सब भूचारी देव हैं और भूमि को अपने तेज से सुरक्षित रखते हैं। यदि किसी गृह में अपने स्थान से कुलदेवता रुष्ट हो अन्यत्र गमन कर जाते हैं। इस परिस्थिति में कुल की उपासना को कोई अन्य असुर ग्रहण करने लगता है । अत: कुलाचार का निर्वहन श्रद्धापूर्वक करना चाहिए ।
मनुष्य अपने धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र, ग्राम, कुलादि देवों के प्रति जिस प्रकार ऋणी रहता है उसी प्रकार अपने अन्त:करण एवं ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय के देवों का भी ऋणी रहता है । इन अन्त:स्थित देवों की सक्रियता से ही जीवन संचालित होता है और नानाविध पुरूषार्थ साधित किये जाते हैं । यदि मनुष्य इनके प्रति उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता है; संयम-नियम से तपोनिष्ठ हो देवताओं को सबल नहीं करता है: देव-प्रदत्त शक्ति-सामथ्यों का उपयोग देव-यज्ञ में, जनहित में नहीं करता है, पापपरायण हुआ अमर्यादित भोग करता है तो वह देवताओं के ऋण से बद्ध हो जाता है। यदि हम देवोपासना कर सात्विक वृत्ति को तेजवंत ना करें तो हमारे शारीरिक, प्राणिक, मानसिक सुरक्षा चक्र कमजोर हो जाते हैं और इनके दुर्बल-द्वार से दानवी शक्ति को आक्रमण करने का मौका मिल जाता है। फलत: विविध प्रकार की व्याधि, चिन्ता, शोक अवसाद, उद्विग्नता, उन्माद, अशांति की उपस्थिति से हम सदैव आक्रान्त रहते हैं । अत: प्राचीन काल से हमें ऋषि परंपरा के निर्देशन में सभी प्रकार के मंगल अवसरों पर देवोपासना का विधान सिखाया गया है । भूत-प्रेत बाधा, ग्रहबाधा, दैहिक, दैविक, भौतिक उत्पातों की शांति हेतु मंत्र-तंत्र-यंत्र आदि विधा प्राप्त है जिनका ठीक-ठीक अनुसरण कर मनुष्य स्वयं को दैवीय विपत्तियों से मुक्त कर सकता है- सूक्ष्म आघातों से स्वयं को संरक्षित कर सकता है । आत्मज्ञान लब्ध, विशेष प्रकार की सिद्धियों से युक्त, शुद्ध हृदय, देवतुल्य, तपोनिष्ठ ऋषियों के आप्त उपदेशों, उपचार-क्रियाओं, संरक्षण-पद्धतियों के अनुसरण से मनुष्य स्वयं को स्थूल एवं सूक्ष्म विपत्तियों से संरक्षित कर