काटकर, खून निचोड़कर, अंग निकालकर अग्नि में समर्पित करने लगती हैं, अपने आप को अत्युग्र कष्ट देकर तमोगुण के अधिष्ठाता ईश्वर-इश्वरी को प्रसन्न कर तुष्ट करती हैं और वरदान में किसी को भीषण कष्ट देने का अधिकार माँगती है । दु:साहसी संकल्प वाले ऐसे शक्तिशाली प्रेत विशिष्ट प्रकार से शक्ति संपन्न साधकों को भी आघात पहुँचाने में समर्थ होते हैं । यहाँ तक कि इस प्रकार के वरदानी असुर, राक्षस, पिशाचादि उन्हीं देवी-देवताओं पर ही शक्ति का प्रयोग करते हैं जिनसे वे वर को प्राप्त कर शक्तिशाली बने रहते हैं। इस कोटि में कुछ प्रेत अभिचारित भी हेाते हैं। स्थूलजगत में यदि कोई अभिचारादि तामसिक सिद्धि से संपन्न मनुष्य देवी-देवताओं पर ही अभिचार-क्रिया का प्रयोग करता है तो अपने ही सिद्धान्त, नियम से बँधे देवी-देवता भी अभिचार-प्रयोग के दायरे में आ जाते हैं । उन्हें भी इससे मुक्ति के लिए स्थूल जगत की प्रतिकारी क्रियाओं की आवश्यकता होती है जिसे संपन्न करने हेतु साधकों को प्रेरित करना पड़ता है । अन्य मनुष्य भी अभिचारजनित प्रेतबाधा का अनुभव करते हैं। अभिचार-कर्म सूक्ष्मजगत में भी किया जाता है। सूक्ष्मजगत में ऐसी भूमियाँ हैं जहाँ के निवासी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का आश्रय लेकर नाना प्रकार के ऐसे अनुष्ठान एवं क्रिया करने में सक्षम हैं जो साधक को भारी क्लेश प्रदान करते हैं । इनका प्रभाव स्थूल जगत में अभिचारादि कर्म करने वाले मनुष्यों पर भी पड़ता है । इनकी प्रेरणा से वे पृथ्वी पर मारण, मोहन, वशन, स्तम्भन, उच्चाटनादि अभिचार में सफल होते हैं । जिस व्यक्ति के निमित्त ऐसे क्रिया-कलाप का अभ्यास किया जाता है वह यदि असुरक्षित रहे, गुह्मवादी के निर्देशन में उपचार न कराये तो उसके शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य में हानि होने की अत्यधिक संभावना रहती है। अभिमन्त्रित सूक्ष्म सत्ताएँ अभिचार-कर्ता की सिद्धि के अनुपात में अपने बल का प्रदर्शन करती है । इनके उत्पातों से संभव है कि पीड़ित वस्तुओं, नशा का सेवन करने वाला, अनियमित जीवन-चर्या वाला पागल हो जाय या किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त, दर्द-चक्कर आदि वेदना को प्राप्त करने वाला, चिकित्सकों की समझ से परे रहस्यमय रोगों से जूझता