पृष्ट संख्या 31

उद्धारक सिद्धजन को उन शिष्यों की विकारी वृत्ति के आश्रयी प्रेतों का उत्पात भी सहना पडता है जिनमें आध्यात्मिक अभ्युदय की प्रक्रिया शुरू होती है । उद्धारक के संरक्षण में आध्यात्मिक लाभ पाने वाले शिष्यों के पापजनित क्लेशों का भी स्थानांतरण होता है । उसके उद्धार का संकल्प लेते ही उद्धारक गुरू उसके चित्त में निवास करनेवाली अशुभ आत्माओं के आक्रमण को झेलते हैं । इस प्रक्रिया में उद्धारक आत्मा को कष्ट उठाना पड़ता है ।


सिद्धजनों के समीप सूक्ष्मदेही का जमावड़ा विभिन्न कारणों से होता है । मनुष्य जिनकी उद्धारकारी महिमा से अनभिज्ञ रहता है, मरकर उन्हें ठीक-ठीक जानता है । प्रेत जब यह अनुभव करता है कि पृथ्वी पर कोई ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने ईश्वर की सन्निधि प्राप्त कर ली है तो वे अपने उद्धार की आशा से उनके समीप मैंडराने लगता है । वह सोचता है कि अमुक व्यक्ति जो हमारा ही संबंधी रहा है, साथ-साथ जिसने जीवनयापन किया है वो व्यक्ति इतना महान है ! दुर्लभ ईश्वर-साक्षात्कार करता है, संकल्प लेकर दूसरों का उद्धार करता है । निश्चय ही वह हमें दुर्गति से बचायेगा । यह सोचकर वह द्रष्टा ऋषियों के समीप आता है उनसे संवाद स्थापित होने पर अपनी उद्धार की याचना भी करता है । पश्चाताप करते हुए अपने पापों को कबूलता है । ऐसी ही विनती वह किन्हीं परमेश्वर के चित्र के आगे भी करता है । प्रेत-जीवन के भयावह कष्ट से निजात पाने के लिए प्रेत हरसंभव प्रयास करता है । वह यह सोचकर भी सिद्धों को तंग करता है कि भगवान अपने भक्त पर कृपा कर उसे मारेंगें और वह प्रेत-देह से मुक्त हो अच्छे लोक को प्राप्त कर लेगा। कुछ प्रेत इष्या-द्वेष से भरकर ही संतों के समीप उपद्रवी तत्व बने रहते हैं । कुछ प्रेत उद्धारक के समीप उन्नति करती हुई अपनी संततियों को देखकर कुद्ध हो उठते हैं । सी-पचास व्यक्तियों का एक समूह होता है जो एक-दूसरे के पिता-पुत्र, माता-भ्राता, शत्रु-मित्र आदि संबंधियों के रूप में जन्म-जन्म में देह ग्रहण करते रहते हैं । कुछ व्यक्ति मरकर सूक्ष्मजगत में रहते हैं तो कुछ जन्म ग्रहण करते रहते हैं । इनका एक-दूसरे के साथ प्रारब्ध कर्मों का बंधन रहता है- जब कोई मनुष्य संतों


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