में परिलक्षित होता है । इसी कारण, बहुधा साधक के शारीरिक रोग, क्लेश, अक्षमता में वृद्धि हो जाती है । एवंप्रकारेण योगी एक-एक क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा कर पाप को बहिष्कृत करता है । कितु यह प्रक्रिया अति कष्टसाध्य है । पाप प्रारब्ध-बल से शक्तिवंत बना रहता है। योगिजन अनुभव करते हैं कि भगवत्कृपा से भी पाप का क्षय तभी किया जाता है जब उसकी भोक्तव्य आयु समाप्त होने पर हो । जिस पाप का फल अभी पाक नहीं हुआ है अर्थात यदि संचित पापकर्म फल देने के लिए वर्तमान या भविष्य के जन्म में प्रवृत्त नहीं हुआ है तो ऐसे अपाक पापकर्म तपस्या एवं भगवदानुग्रह से मिट जाता है। सम्पूर्ण पाप का क्षय तो अंतिम जन्म के शरीर-क्षय होने पर ही संभव होता है क्योंकि मनुज देहधारण के निमित्त किंचित पाप की भी आवश्यकता होती है फिर भी क्लेशकारक तिर्यक योनि की प्राप्ति का हेतुः पूर्णता–प्रतिबन्धक पाप का खात्मा साधक ईश्वर को प्रति समर्पण कर, तपोनिष्ठ होकर, ईश्वराज्ञा का पालन कर संपन्न करता है । विशेष व्कृपा पात्र साधक पाप-निवृत्ति हेतु देवताओं के द्वारा अनुष्ठानादि आयोजन का आदेश पाते हैं। देव-निर्देशित अनुष्ठानों का विधिवत संपादन पाप को क्षीणकाय करता है तथा साधक के आश्रय से निवास कर रहे प्रेत-समूह को नष्ट करता है। देवी-देवताओं के चक्र, त्रिशूल, तीर, खड्गादि अस्त्र-शस्त्र से आहत होकर प्रेतदेह नष्ट हो जाता है । फलत: प्रेतत्व से मुक्ति पाकर जीव शांति लाभ करता है। अत: सिद्धजनों के समीप मेंडराकर प्रेत आत्मोद्धार की आशा लगाये रहते हैं। वे इस बात की नाप-तौल करते रहते हैं कि अमुक साधक में उसे मरवाने की योग्यता है कि नहीं ।
प्रेतबाधा से मुक्ति के उपाय :ー
- १. प्रेत बाधा की प्रकृति के अनुसार ही उपचार होता है । यदि साधना-मार्ग की विशेषता से प्रेतबाधा को अनुभव किया जाता है तो उस साधना-मार्ग के अनुशासन को अपना कर, उसके आचार्य के दिशा-निर्देशन में इसका प्रतिकार किया जाता है । कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि साधक भगवान के नाम पर भावुक, एकाग्र होते ही मानसिक संतुलन खोने लगते हैं- प्रेतों के प्रभाव में आ जाते हैं । ऐसी परिस्थितियों में