मात्र धुआँ के रूप मे ही लखते हैं, भैंस के रूप में एक से एक बलशाली असुर है, नरमुंडों की आकृति में दानवी शक्ति साधक को तंग करती है। इसी प्रकार भक्ति गाथाओं में जो भगवान के अवतारों के द्वारा आसुरिक सत्ताओं का वध किया जाता है वे सभी सताएँ सूक्ष्म रूप में भक्ति-साधना में सदा से अनुभूत किये जाते हैं । वस्तुत: भगवान कृष्ण ने जो गदहा, प्रतीक है । इन रूपों में असंख्य प्राणी हैं सूक्ष्मजगत में । इनका संबंध उन-उन साधकों से है जो कि कृष्णभक्ति के पथ पर अग्रसर होते हैं । ईश्वर एवं ईश्वरी अनेक रूप धारणकर, विविध अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर अदेवात्माओं को मारते हैं- उन्हें प्रेतदेह से सदा के लिए मुक्त कर देते हैं। यह सौभाग्य जन्मों के तप, पुण्य से संयुक्त ऐसे प्रेतों को ही प्राप्त होता है जो साधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करने में असक्षम रहते हैं- इनका चुनाव भगवत्कृपा करती है । भागवत ज्योति का जैसे-जैसे मानव की चेतना में प्रवेश होता है वैसे-वैसे उसके भावात्मक, विचारात्मक, क्रियात्मक कोश पर सदियों से आधिपत्य जमाये हुए इन अंधकार के पोषक आत्माओं का पलायन होता है । चुंकि मनुष्य अपने विगत के जन्मों में अनेक धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, आचार-पथ को अपनाये रहता है इसलिए उसे साधना काल में अपने वर्तमान पथ के इतर भी उपस्थित रहनेवाले प्रेतों का कोप सहना पड़ता है । मुमुक्षु कब और किस प्रकार के प्रेत द्वारा संकट में फंसेगा- इसका निर्धारण उसके जन्मांतर के शुभ-अशुभ कर्म और संस्कार करते हैं । भोगानुसार ही विदेशी, परधर्मी, विजातीय प्रकृति के प्रेत द्वारा साधक कष्ट पाता है । अलग-अलग धमों के दानवों का संहार उन्हीं-उन्हीं धमों के देवी-देवता द्वारा होता है । अत: साधक अपने धर्म के इतर अन्य धर्मों के अवतारों, आचायों का भी अनुभव प्राप्त करता है |
एक मनुष्य का चित्त–परिवर्तन एक महान घटना है– इसे साधित करने में भिन्न-भिन्न देवी-देवता, ऋषियों, अवतारों को कष्ट सहना पड़ता है । सूक्ष्मजगत में इस प्रकार की अदिव्य सताएँ हैं जो दुष्टकार्य करने के लिए भीषण तामसिक तपस्या करती हैं । तपस्या करते हुए ये अपना माँस