पृष्ट संख्या 7

होगा । स्थूलदेह का त्यागकर जीव अपनी मृत्युकालीन वृत्ति का पुजमात्र बन जाता है । वह अपनी वृत्तिगत वासना, कामना, भावना का निरन्तर पोषण चाहता है । यदि कोई कामक्रिया में अत्यधिक रस लेनेवाला प्रेत है तो वह किसी प्राणी के प्राणमय शरीर में घुसकर काम-क्रिया का भोग करता है। इसी तरह क्रोधजनित हिंसा, दुष्टता, मूढ़ता हो या लोभ-लिप्साजनित कृट-कपट, झुठ–फरेब इन सभी प्रकार को मानसिक संकल्प एवं प्राणिक चेष्टा का उपभोक्ता इन वृत्तियों में रस लेने वाले सूक्ष्मदेही ही हैं। अतएव हम देखते हैं कि प्राणिक आवेश में संलग्न रहनेवाली सूक्ष्मदेही सत्ता अपने पोषण के लिए, अस्तित्व-रक्षा के लिए व अपनी वृत्ति के विस्तार हेतु स्थूल शरीरधारी प्राणी के चित्त का आश्रय लेती है । मनुष्य के चित्त में सूक्ष्मजगत के हस्तक्षेप का मात्र इतना ही कारण नहीं है । इसका एक प्रबल कारण मृतक की आसक्ति भी है । मरने के समय में जीव की संस्कारगत आसक्तियाँ प्रबल हो जाती हैं- वह अपने पुत्र-पौत्रादिकों, संचित संपत्तियों के प्रति मोह से भर जाता है । साधारण मनुष्य अपने घर, तीव्र जुड़ाव महसूस करता है । वह मरने के बाद भी इनसे अलग होना नहीं चाहता है किंतु उसे अपने स्थूल शरीर का बलात त्याग करना पड़ता है । इसी कारण वह अपने भौतिक वातावरण पर प्रभुत्व स्थापित कर भौतिक अभ्यासों की पुनरावृत्ति करना चाहता है । इसी क्रम में वह पृथ्वी पर मनुष्यों को सर्वप्रथम अधिकृत करना चाहता है क्योंकि मनुष्य ही भौतिक शक्ति को सबसे अधिक प्रकट करने वाला प्राणी है एवं उसकी प्रकृति से सादृश्यता रखता है । शरीर छोड़ने के कई वर्षों तक सूक्ष्म सत्ताओं द्वारा इस प्रकार अपने भौतिक परिवेश में हस्तक्षेप करते देखा जाता है कितु समान्यत: एक वर्ष तक यह अनुभव अधिक किया जाता है । योगिजन देखते है कि कई गृहासक्त मनुष्य मरने के बाद प्रेतदेह से अपने घर-आँगन में चक्कर काटते रहते हैं । अपने द्वारा भौतिक जीवन में अर्जित वस्तुओं को निहारकर, अपने कुटम्बों को देखकर उन्हें संतोष और सुख का क्षणिक स्पर्श प्राप्त होता है किंतु अगले ही पल उनकी स्मृति गवाही देती है कि अब ये संसार अनके लिए झूठा हो गया है - यहाँ


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