पृष्ट संख्या 38

करने के लिए भी तंत्र-मंत्र का सहारा लेती है । इनमे काक-तंत्र बहुत प्रभावशाली है । इसके परिणाम स्वरूप यौगिजन स्थूल कौआ की बोली से क्लेश पाते हैं । वस्तुत: चित्त में क्रोध, काम, ईष्यां, संशय, आवेशादि वृत्ति को उभारनेवाली, शरीर में रोग-व्याधि प्रकट करने वाली मानसिक रूप से व्यथित, बेचैन, भयभीत करनेवाली दुष्टात्मा स्थूल कौआ, कुत्ता, बिल्ली आदि के आश्रय से अपने को प्रकट करने का ठोर बनाती है और उनकी वाणी के आश्रय से गाली-गलौज कर, अशुभ प्रेरणा कर साधक पशु-पंछी के विकारी चित्त का ये आश्रय लेती है वैसे ही परिवेश में वस्तुओं के आश्रय में भी इसे टिकने में सहायता प्राप्त होती है । काक-तंत्र से व्यथित हुए योगी को भयंकर क्लेश भोगना पड़ता है। यह प्रक्रिया तब और भी जटिल रूप से घातक हो जाती है जब योगी की चेतना मूलाधार से नीचे पतित हो जाती है। मूलाधार के नीचे गिरते हुए योगी ऐसी भूमि में उतरता है जहाँ दो कौए निवास करते हैं । वहाँ का वातावरण भीषण ताप से जलता रहता है । यह कौआ योगी पर ककाल का रूप धरकर आक्रमण करता है । ये सूक्ष्मजगत के काक और स्थूलजगत के काक एक-दूसरे के सहायक बन साधक के ऊपर सूक्ष्मजगत की बडी-बडी शैतानी शक्तियों के आक्रमण का द्वार खोल देते हैं । जटिल प्रारब्ध–भोग या योगानुशासन–भंग को कारण जब योगी मूलाधार से निम्न भूमियों मे अवतरण करता है तब वह योगयुक्तावस्था में प्राप्त होने वाले तेज, रक्षाकारी कवच, योगबल-विभूति से वंचित हो जाता है। इस अवस्था में उसके समीप वह निकृष्ट, दुष्ट आत्माएँ बेरोक-टोक उपस्थित होने लगती है जो पहले उसके योगतेज से भयभीत हुई दूर भागती रहती थी । जब योगी इन निम्न भूमियों में विचरण करता है और प्रेतों के आघात को सहता है तब उसे प्रेतों के करतूत का, उसकी प्रकृति और संवेदना का अध्ययन बडी बारीकी से होता है । वह अनुभव करता है कि उसके मन में निकृष्ट वृत्तियों को उभारने के लिए एक से एक प्रेत अथक प्रयास करते हैं। वह अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव करता है कि


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