पृष्ट संख्या 13

चंचल करने के लिए उन्हें बाह्य सौन्दर्य-प्रसाधन को अपनाने, सुरुचिकर बहिंमुखी क्रियाकलापों में संलग्न होने, मोह-मात्सर्यवर्द्धक प्रवृत्तियों को तुष्ट करने की प्रेरणा करता है । असत्यस्वरूप बना देनेवाली अज्ञानी इच्छाओं के चक्र में नियोजित कर प्रेत अध्यात्म-पथ को अंतहीन बताने की कुचेष्टा करता है ।


उपर्युक्त संभावना के उत्पन्न होने का कारण यह है कि चित्त की शुद्धि यदि पर्याप्त रूप से संपन्न नहीं हुई है और भागवत अवतरण का संयोग उपस्थित हो जाता है तो उस अवतरित चेतना से चित्त के अशुद्ध, विकारी, पापमय क्षेत्र में निवास करनेवाले आसुरिक, दानवी, पैशाचिक सतायें भी जाग्रत, शक्तिशाली हो जाती हैं । ये दैव-अनुभूतियों के साथ मिश्रित होकर भ्रांतिपूर्ण, गलत एवं मनोनुकूल तथ्यों का सृजन करती है । इन परिस्थितियों में साधक का चित्त सूक्ष्म शक्तियों का क्रीडांगन बन जाता है जहाँ सभी प्रकार की शक्तियाँ अपना-अपना कार्य साधने में रत रहती हैं । सूक्ष्मजगत में कई ऐसी आत्माएँ हैं जो अपने पिछले मनुष्य जन्म में किसी साधना-पथ की कुछेक प्रारंभिक सिद्धियों से संपन्न होती हैं । उनमें परमतत्व के साथ समत्व एवं एकत्व की बुद्धि नहीं होती है। ऐसी आत्मा पार्थिव जगत के साधक के ऊपर अपने पथ के अनुसरण के लिए दबाव डालती है । कोई प्रेतात्मा ज्ञानमार्गी को तंत्र साधना करने का सुझाव देती है तो अन्य कोई भक्तिमार्गी को मंत्र-साधना करने का सुझाव देती है । ऐसे सूक्ष्म संकेतों के अनुपालन से साधक को भटकाव ही मिलता है अत: इनकी अवहेलना करते हुए अपने पथ पर अग्रसर रहना ही निरापद है। किसी मंत्र, व्रत आदि के अनुष्ठान करने का निर्देश साधक अपने पूर्वजों के रूप में, किन्हीं कुटुम्ब, परिचित, मित्र या गुरू के रूप में भी प्राप्त करता है । श्रद्धेय पात्रों के द्वारा अशुभ कार्य की प्रेरणा भी प्राप्त होते देखी जाती है । अक्सर अशुभ आत्मा अपने ही भाई-बहन, माँ-चाची, गुरू आदि का रूप लेकर पुरुष एवं स्त्री में काम उत्पन्न करने की चेष्टा करती है। इन रूपों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो- इसी लक्ष्य को लेकर अनैतिकता का समर्थन करने वाली अज्ञानी आत्माओं के इस कुचक्र से साधक को सावधान रहना चाहिए । साधक को जिस प्रकार विषय-वासना


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