पृष्ट संख्या 8

कि कोई भी संपत्ति उन्हें सुखी नहीं कर सकती । अपने मानव पुत्रों के प्रति उनकी निराशा कह उठती है- तेरे लिए ही यह संसार सत्य है मेरे लिए तो इसका कुछ भी मोल नहीं । फिर भी उन्हें अपने वे संतति, संबंधी ही ज्यादा प्रिय होते हैं जो लौकिक जीवन में उन्हींके समान बहिर्मुखी जीवन जीते हैं और मरने के बाद उन्हींके समान गति को प्राप्त करने वाले हैं । सहज अज्ञान की असुखकर अवस्था को प्राप्त प्रेत अपनी ज्ञानी संतति को देख कुपित हो उठते हैं एवं अज्ञानी पार्थिव संतति-सखाओं को निरख हर्षित होते हैं । उनकी दृष्टि में भगवान को प्राप्त करने वाले त्यागी तपस्वी साधुजन अपने मार्ग से भटके हुए हैं जिन्हें रास्ते पर लाने के लिए वे नाना प्रकार का उद्यम करते हैं । जिस प्रकार योद्धाओं को अपने दल से बिछुड़े ताकतवर योद्धा के खोने का अफसोस रहता है उसी प्रकार किसी विशेष कुल के प्रेत-समुदाय को वे व्यक्ति अपने दल से बिछुड़े प्रतीत होते हैं जो सत्य, ब्रह्मचर्यादि दिव्य सात्विक गुणों से युक्त हैं। उन्हें अपने दल में मिलाकर शक्तिशाली बनाने के लिए वे येन-केन-प्रकारेण चेष्टाशील रहते हैं और असफल होने पर अफसोस जाहिर करते हैं । फिर भी यह जानते हुए भी कि अमुक व्यक्ति अपने सत्य, आदर्श का त्याग नहीं कर सकता है वे उसे प्रलोभन देने, प्रताड़ित करने, नाहक परेशान करने का दुष्टकार्य नही छोड़ते हैं।


अपने दुष्टकार्य के लिए प्रेत अति प्रतिबद्ध होते हैं। इन्हें चित्त की प्रत्येक सूक्ष्म, छिपी हुई, अव्यक्त वासना, लालसा, स्पृहा, चिन्ता, इच्छा का ज्ञान रहता है । जिन्हें तंग करना इन्हें अभीष्ट हो उनके दैनिक क्रियाकलापों, आदतों पर इनकी पूरी नजर रहती है और उनके किसी प्रकार के चिन्तादायक तथ्य को ये शांत मानस में उद्वेलित कर उनकी । शांति भंग कर देते हैं । सामान्य रूप से जीवन यापन करते व्यक्ति को अनिद्रा, बेचैनी, भय, घबराहट उत्पन्न कर ये असामान्य, असहज स्थिति में ले जाने का प्रयास करते हैं ताकि वे मानसिक-प्राणिक संतुलन को खोकर अनर्थकारी कदम उठा लें । अत्यधिक त्रास का सृजन कर ये साधक के मन में ईश्वरीय सत्ता के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने की चेष्टा करते हैं। उसके साथ झूठी सहानुभूति रखकर उसे ईश्वर की निष्ठुरता और


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