अकेले या समूह में आकर प्रेत उसके गात में प्रविष्ट होते हैं । इनकी आकृति कभी मनुष्य के समान रहती है तो कभी पशु के समान । कभी ये छाया मात्र के रूप में भासते हैं। इनका शरीर हिलता हुआ, इधर-उधर डोलता रहता है । ये कभी अपने विगत के मानव-रूपों में प्रकट होते हैं तो कभी प्राप्तव्य पशु-योनि को प्राप्त हो जाते हैं । अपने इर्द-गिर्द मैंडराते प्रेतों में साधक को कई परिचित चेहरे दिखलाई पड़ते है- जिन्होंने कि कुछ दिनों, वर्षों पहले मानव-शरीर छोड़ा हो, कुछ अपने सगे-संबंधियों, मातृ-पितृ पक्ष के मरे हुए व्यक्यिों को भी वह प्रेत रूप में पाता है जिनका कि कभी विधिवत श्राद्धकर्म संपन्न हो गया है । कितु इन प्रेत समुदायों में उसे प्राचीन काल के सभ्यता-संस्कार वाले, बहुत लम्बे-लम्बे, विशालकाय प्रेत भी दृष्टिगोचर होते हैं जो कि अपनी हथेली पर ही उसे उठाने में सक्षम हो । उसे यह ज्ञात होता है कि प्रेत सूक्ष्मजगत में लाखों-करोडों वर्षों से भी भटकते हैं । योगीजन यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि उसके लाखों-करोड़ों जन्म के साथी-संबंधी अब भी सूक्ष्मजगत में उपस्थित हैं एवं निम्न चेतना की भूमियों में अत्यधिक क्लेश भोग रहे हैं।
प्रेत छाया रूप में दिखते हैं एवं इनके रंग भी अलग-अलग होते हैं। अलग-अलग तत्व की प्रधानता और पाप-पुण्य की विशेषता से भी इनके तेज एवं रंग में वैशिष्ट्य होता है । ये लाल, नीला, उजलादि रंगों के प्रकाश से युक्त भी रहते हैं। कुछ प्रेत आग का गोला जैसा होता है। इसके शरीर से आग की लपट उठा करती है, कुछ बर्फ की तरह सफेद कुछ मात्र नरककाल के ढाँचा में दिखाई पड़ते हैं। कुछ प्रेत सूर्य की तरह ही दिखलाई पड़ता है । कुछ मात्र सिर के रूप मौजूद रहता है तो कुछ प्रेतों का अस्तित्व सिरविहीन धड के रूप में ही रहता है। बड़े-बड़े हाथी, घोडा, गदहा, साँढ़, भैंसा, बकरा आदि के रूप में प्रकट हुए प्रेत अपने असंख्य यूथों के संग भय का सृजन करते हैं । उनकी आकृति, उनका आकार और उनकी संख्या व शक्ति देखकर साधक का चित्त घबडा उठता है । ऐसा लगता है मानो ये अपने पद-प्रहार से आकाश को रौद डालेंगे । कुछ प्रेत का देह अति सर्द तो कुछ का पत्थर की तरह कठोर होता है कुछ अपने स्पर्श से ताप का आभास देते हैं तो कुछ धुआँ के पुंज