मरकर प्रेतदेह की लंबी आयु भोगते हैं । द्रष्टागण जब अवचेतन के लोकों की यात्रा करते हैं तो दु:ख, कष्ट, दंड को भोगते हुए उन परिचित चेहरों को देखकर दंग रह जाते हैं जो कभी इस पृथ्वी पर महान यश, कीर्ति, २ सम्मान को प्राप्त किये हुए थे; अपनी उदारता, सहृदयता, एवं शिष्टाचार से समाज क अग्रगण्य माने जाते थे; सदैव ही तीर्थ, व्रत, पूजा-पाठ ही करते थे; साधु-संन्यासी के रूप में जीवन यापन करते थे । मनुष्य के प्रकार की विरोधाभासी परिस्थिति पैदा करता है । जबतक मनुष्य अपनी सुखमय नहीं होती है । मृत्योपरांत गति का निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें मृत्युकालीन अवस्था एक अहम भूमिका निभाती है। चित्तवृत्ति को अनुसार ही प्राण को निकलने का द्वार निश्चित होता है । दो नेत्र, दो कान, दो नासिका, एक मुख और एक ब्रह्मरंध्र- इन्हीं अष्टमार्गों से पुण्यवानों के प्राण निकलते हैं कितु प्राण के निकलने का दो छिद्र नीचे भी है- गुदा और उपस्थ । पापियों के प्राण इन्हीं छिद्रों से निकलते हैं । प्राणियों के मृत्युकाल में उसके शरीरस्थ तत्व- कफ, पित्त, वायु का प्रकोप उत्पन्न होता है। शरीर में जब वात का वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणा से पित्त का वेग भी असंतुलित हो जाता है जिससे उत्पन्न उष्मा ३ प्राणों को अपने स्थान से उखाड़ने लगती है। पित्त के इस प्रकोप से कफ का संतुलन बिगड़ता है फलत: शीत से कुपित हुई वायु अपने निकलने के लिए छिद्र ढूँढ़ने लगती है। इस समूची प्रक्रिया में अति वेदना उत्पन्न होती *है। मृत्युकाल में जीव का पिण्ड ब्रह्मांड-प्रलय के समान ही नाश को प्राप्त होता है । जीव की प्रकृति चौबीस तत्व से निर्मित है । कान, त्वचा, आँख, जीभ और नाक- ये पाँच इन्द्रियाँ हैं इनसे क्रमश: शब्द सुनना, किसी बाहरी वस्तु का स्पर्श करना, देखना, स्वाद की प्रकृति समझना और गन्ध ग्रहण करने का ज्ञान उपलब्ध होता है । गुदा, उपस्थ(लिंग या योनि), हाथ, पैर एवं वाणी- ये कर्मेन्द्रिय हैं जिनके द्वारा क्रमश: मलत्याग, प्रजनन, ग्रहण, प्रचलन, एवं वार्तालाप की क्रिया होती है । इन्द्रियों के पाँच विषय हैं -शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध । पाँच महाभूत हैं जिनसे