पृष्ट संख्या 10

त्रिविध तापों का वेग कुछ कम हो जाय परंतु पतित होकर अन्ततोगत्वा उन्हें निराशा ही हाथ लगती है । इस क्षणभंगुर जीवन के बाद वे शैतानी प्रेतों का ही अनुचर, सहचर बने क्लेश पाते हैं । इसके वनिस्पत, श्रेय के मार्ग को चुनने वाले धीर साधक इस जीवन में प्रारब्ध एवं प्रतिकूल शक्तियों के आघात को सहकर अपने पारलौकिक भविष्य को सुखमय बनाते हैं । वे दुष्टात्माओं के द्वारा प्रदत्त भोग-विलास के प्रलोभनों या अन्य कमाँ में लिप्त होने की प्रेरणा को अस्वीकार कर स्वयं को पतित होने से बचाते हैं। किन्तु ऐसा करने में साधक से सूक्ष्मात्माओं की प्रकृति को पढ़ने की प्रवीणता अपेक्षित रहती है । कारण, मनुष्य जितना चतुर हो सकता है उससे अधिक चतुराई के द्वारा उसे असत्य के अनुयायी सूक्ष्म आत्मा ठगने की कोशिश करती है । अपनी सत्यता साबित करने के लिए यह नाना प्रकार के सत्य स्वरूप देवों की आकृति गढ़ लेती है । सर्वप्रथम दुष्टप्रेत साधुजन की श्रद्धा को नष्ट करने का प्रयास करती है एवं असफल होने पर उसकी श्रद्धा को ही हथियार बना लेती है ।


साधक की श्रद्धा को नष्ट करने के लिए प्रेतों का समूह एक से एक षडयंत्र रचता है । सद्ग्रंथों, देव-मूर्तियों, देवालयों, पवित्र वृक्षों, देवी-देवताओं के प्रति हृदयस्थ सहज श्रद्धा को विचलित करने के लिए प्रेतगण एक से एक कौतुक रचते रहते हैं । कभी साधक जब मल-मूत्र का त्याग कर रहा होता है तो उस स्थान पर वह श्रद्धेय धर्मग्रंथों एवं देवी-देवता की प्रतिमाओं को भासमान कर देता है। कभी तुलसी, पीपल आदि पवित्र वृक्ष को पेशाब स्थल पर उत्पन्न कर अत्यंत घृणित कार्य करता है । इस प्रकार के घोर कुत्य से वह जन्मों से पलती श्रद्धा, निष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगाने की चेष्टा करता है । पूजन-स्थल पर मल-मूत्र, थूक आदि अपवित्र वस्तुओं का वर्षण कर, श्रद्धेय देवी-देवताओं के बारे में मनगढ़न्त, अनैतिक, अमर्यादित वाणी का प्रयोगकर, उनके रूपों के स्वांग से संदेहजनक दृश्यों को दिखलाकर प्रेतगण साधक के चित्त में व्याप्त आस्था, निष्ठा, श्रद्धा, विश्वास को खत्म कर देना चाहते हैं। संशय-विभ्रम उत्पन्न कर उनकी एकनिष्ठ उपासना को दूषित करते हैं ।


' श्रद्धा ' अध्यात्म के अनंत शिखर का आधार है । यदि श्रद्धा का


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