की कृपा प्राप्तकर अपने जीव-भाव से मुक्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है तब इनके समूह के प्रेतों को यह रुचिकर नहीं लगता है । वे नहीं चाहते हैं कि कोई उनके कुल-समूह का त्यागकर उध्र्वलोक का वासी बने और उनपर शासन करे । अत: वे अपनी सामथ्यानुसार उनके संकल्प को मोड़ने की कोशिश करते हैं । प्रत्यक्ष रूप से उनकी साधना, श्रद्धा, समर्पण को प्रभावित करने की चेष्टा करते है, असफल होने पर क्लेश देते हैं ।
वस्तुत: जन्म-जन्मांतरों के सखा-संबंधी बने हुए प्रेतों का उपद्रव प्रारब्ध-चक्र के अधीन ही होता है । कल्प के आदि से जन्म-मरण के चक्र में हमारे लाखों-करोडों जन्म हो चुके हैं । अपने जीवन-समूह के कुटुम्बियों से हमारा कई प्रकार का लेन-देन हुआ रहता है जिन्हें कुछ वर्तमान में भी क्षय किया जाता है, सृजित किया जाता है और भविष्य के गर्भ में भी क्षय-वृद्धि की संभावना रहती है। किंतु जब इस समूह से कोई सदस्य योगी हो जाता है और अपने चित्त को पूर्णरूप से शुद्ध कर अपना कायाकल्प करना चाहता है तो उसके प्रारब्ध कमों का फल-भोग भी सामान्य गति से तीव्रतर हो जाता है । जब आध्यात्मिक आरोहण करने के उपरान्त उसके जन्म सीमित हो जाते हैं- उसे भव-चक्र से मुक्त करने की व्यवस्था की जाती है तब उसके बहुत सारे जन्मों के माता-पिता, पुत्र-पत्नी, शत्रु-मित्र-जो कि सूक्ष्मजगत में निवास करते रहते हैं- उससे अपना हिसाब लेने की उपस्थित होते हैं । प्रारब्धानुसार निश्चित अवधि तक वे साधक को क्लेश देने का अधिकार रखते हैं। भागवत उपस्थिति से या अन्य विशेष प्रकार के कर्मानुष्ठान से अन्य सभी प्रकार की प्रेतबाधाओं का निवारण संभव है किंतु उन प्रेतों का नहीं जो प्रारब्ध कर्मानुसार बाधा उत्पन्न करने को अधिकृत रहते हैं । भगवत्कृपा उन दुष्टात्माओं का ही संहार करती है जिनका भोग खतम हो गया है । अलग-अलग देवी-देवता के तेज से इनका संहार किया जाता है। जिन तत्वों की प्रधानता वाली दुष्टात्मा होती है उसका उसी तत्व की दैवीय मूर्ति द्वारा शमन किया जाता है । इस हेतु साधक को भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञ-कर्मानुष्ठान करने का निर्देश प्राप्त होता है । जब साधक प्रारब्ध के कुचक्र में फंसकर गंभीर प्रेतबाधाओं से जूझता रहता है तब