होते हैं वे अपने चित्त में अशुभ आत्माओं को ठहरने का ठोर बनाये रहते हैं । वृत्ति के आश्रयी अदेवात्मा का उपद्रव तब और भी उग्र हो जाता है जब वृतिधारी चित्त स्वयं को शुद्ध करने का संकल्प लेता है । जब साधक की कुंडलिनी शक्ति का जागरण होता है- उसमें भगवद्चेतना क्रियाशील होती है तब उसके चित्त में जिस प्रकार सत्य, ब्रह्मचर्य, क्षमा, दया, त्याग–तपस्यादि सात्त्विक वृत्ति का उदय होता है उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, इष्य, द्वेष, छल-कपटादि तामसिक वृत्ति भी तेज हो जाती है । अर्थात, जब अन्तर में देवता का प्राकट्य हो जाता है । तब दानव का भी प्राकट्य होता है, फलस्वरूप साधक सूक्ष्मजगत के आक्रमण का अधिक अनुभव करते हैं। चूँकि जबतक चित्त किसी भी प्रकार की तामसिक-राजसिक वृत्ति से संयुक्त रहता है तबतक उसे असत्य, अन्याय, अधर्म, अनैतिकता का समर्थन करनेवाली दुष्टमना प्रेतों के आक्रमण को सहना ही पडता है अत: साधक को साधना के गंभीर क्षेत्र में पैठने से पहले नैतिक, चारित्रिक शुद्धि व संयम-नियम को साधित कर लेना चाहिए । इसके अभाव में यदि गंभीर योगाभ्यास, भावुक साधना की जाय तो साधक के मानसिक विचलन, शारीरिक रोग और पतन की संभावना बहुत बढ़ जाती है ।
चित्त के आश्रयी अशुभ आत्मा शमित व संयमित वृत्ति की उभारती रहती है। इसके प्रभाव से बड़े-बड़े तपस्वी भी इन्द्रियजन्य भोग एवं मानसिक-बौद्धिक विषय-प्रवृत्ति में प्रवृत होते देखे जाते हैं। इनकी गति अति सूक्ष्म होती है जिसे पढ़ने में योगिजन भी निभ्रान्त नहीं रहते हैं। यदि कोई साधक स्वयं को शुद्ध करने के लिए तप कर रहा है तो उसके अह को और भी गाँठदार करने के लिए प्रेत चित्त में प्रेरणा करता है कि वह महान तपस्वी है- उसके जैसा तप कोई कर ही नहीं सकता है । उसने भगवान के लिए कितना कष्ट सहा है । अहकार को बढ़ावा देने वाले भाव-विचार को निरस्त करने के लिए हृदय-पुरुष बार-बार भगवान की महत्ता को दर्शाते हैं । किसी जीव का उद्धार करने में ईश्वर एवं ईश्वरी को कितना कष्ट होता है- उन्हें किस प्रकार कठोर तपश्चर्या करनी पड़ती है, इस रहस्य से साधक को अंतरस्थित देव अवगत कराते रहते हैं