पृष्ट संख्या 58

समर्पण के साथ संयम-सदाचार का अवलंबन लिया जाता है तब असुर विचार, भाव, क्रिया के किन्हीं एक कोशिका से दूसरी कोशिका में चला जाता है । एक-एक कोशिका पर भागवत ज्योति उतरती है और क्रमश: अदिव्य अतिक्रमण का सफाया कर अपना प्रभुत्व स्थापित करती है ।


आसुरिक वृत्ति यदि लोभ प्रधान है तो राक्षसी, पैशाचिक वृत्ति क्रमश: क्रोध और काम वृत्ति की प्रधानता रखती है । प्राय: माँसाहारी पशु-पक्षी के रूप में एवं विष्ठाभोजी पशु-पंछियों के रूप में राक्षसों का, पिशाचों का अस्तित्व सूक्ष्मजगत में पाया जाता है । कुछ-कुछ तिर्यक योनिज प्राणी सभी प्रकार के आहार ग्रहण करते हैं- जैसे कौआ, जिसमें तीनों ही गणों की सम्मिलित प्रकृति परिलक्षित होती है। भयावह अग्रदन्त पंक्ति वाले, सवांग अस्थि रूप ककाल-मात्र, अपने अंगों को ही तीक्षण अस्त्र-शस्त्र बनाने में सक्षम राक्षस हिंसा, क्रोध, भय, मूच्छ, आदि विकार उत्पन्न करने में सफल रहते हैं । ये साधकों के साथ हिंसक व्यवहार करते ही हैं सूक्ष्मजगत के भी निवासियों को प्रताडित करते हैं। हिंसा जन्य पाप से प्रकट होनेवाले ये शक्तिशाली प्रेत अपने प्रकाशक प्राणी को ही कृश करते हैं । कामजन्य पाप से पिशाचों को तंग करने का अधिकार प्राप्त होता है । कामी व्यक्ति मरकर पिशाचों के ही गण बनते हैं उनके द्वारा ही प्रताडित होते हैं । पिशाचों में स्त्री स्वरूप अति मोहक और घातक है। कुछ राक्षस, पिशाचात्मा नाना प्रकार की सुगंधियों से युक्त हैं, ये किसी निर्जन प्रदेश, सरोवर, वृक्षादि के आश्रय से निवास कर पार्थिव प्राणियों पर अपना प्रभाव डालती है। कुछ की उपस्थिति से सड़ने, जलने जैसी गन्ध आती है, मल-मूत्रादि की दुर्गन्ध फैलती है। पिशाच विष्ठा के आश्रय से निवास करते हैं। अधिकांश मनुष्यों की पारलौकिक दुर्गति काम के कारण ही होती है जिनमें पिशाचों की मुख्य भूमिका रहती है। जितने भी प्रकार के अधोगतिकारक प्रेत हैं वे स्थूल प्राणी के शरीर में पाप के आश्रय से प्रकट होते हैं। पाप और पुण्य मनुष्य के साथ जन्म से ही विद्यमान रहते हैं । आम मनुष्य को इनकी अनुभूति नहीं मिलती है लेकिन जब साधक साधना करता है तो पाप की पकड़ ढीली होती है और पाप अपना स्वरूप


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