पृष्ट संख्या 53

वे अपने ही पुत्र, बंधु-बांधवों को अपने प्रति उदासीन देखते हैं तो गहरे क्षोभ और संताप से भर उठते हैं । इसके विपरीत जो मनुष्य श्रद्धा सहित पितृ कर्म करते हैं उनपर वे प्रसन्न होते हैं। सूक्ष्मशरीर में भूख-प्यास की तीव्रता भी मनुष्य देह की अपेक्षा बहुत अधिक होती है । श्राद्धकर्म से बुभुक्षित, तृषित प्रेत लाभान्वित होते हैं परंतु पाप के आधिक्य से वे पुन:-पुन: भूख-प्यास से व्याकुल हुए आहार की खोज में लग जाते हैं। कैसी विडंबना है कि भूख से आकुल प्रेत अपने ही शरीर का भक्षण कर भगा देते हैं । जीवन पर्यन्त जिस शरीर के पोषण में वह व्यस्त रहा वह शरीर उसे आहार में भी प्राप्त नहीं होता है । सूक्ष्मजगत की प्रत्येक व्यवस्था पापियों के लिए प्रतिकूल ही सिद्ध होती है । इन्हें यमदूत यमलोक की राह पर मारते-पीटते, अपशब्द कहते उनके कृत्यों की भत्सना करते हुए ले जाते हैं । जब जीव के कमों का न्याय होता है तो उसके ही शरीर से पाप एवं पुण्य प्रकट होकर मृत्युपर्यन्त किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का ब्यौरा पेश करते हैं । दिन और रात के किये गये कर्मों का सूर्य एवं चन्द्रमा साक्षित्व देते हैं। अपने ही स्वभाव एवं कमों से परिचय पाकर जीव हतप्रभ रह जाता है । उसके सामने अपने कई विगत जन्म एवं आगत जन्म की तसवीर साफ हो जाती है । अपने इर्द-गिर्द मौजूद अन्य प्रेत के अतीत और भविष्य की भी उसे जानकारी हो जाती है । अब वो अपने को मनुष्य नहीं पशु समझता है । उसकी आकृति भी पशु रूप में परिणत हो जाती है साथ ही अवचेतन में मौजूद उसकी सारी पाशविक वृत्ति जीवंत हो जाती है । नारकीय क्षेत्र के घोर कष्ट को सहते-सहते उसकी सारी सद्भावना, कोमलता, परदुखकातरता की भावना शून्य हो जाती है । वह ऐसे प्रेतों के बीच में निवास करता है जो प्रतिपल उसे छलते हैं, मार-काट कर प्रताड़ित करते हैं और शैतानी हरकत करने के लिए बाध्य करते हैं । प्रेतजीवन का घोर कष्ट पश्चाताप और वेदना का क्रदन बन कर फूटता है । द्रष्टागण प्रेतों के विलाप का मार्मिक रोदन सुनते हैं। ये अकेले या समूह में जोर-जोर से रोते रहते हैं एवं सूक्ष्मदृश्यों के अवलोकन में समर्थ साधकों के समक्ष अपना दुखड़ा


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