पृष्ट संख्या 46

नहीं हो पाते हैं। उनके लिए धूप-दीप से सुगंधित-प्रकाशित तप:स्थली दाहकारक होता है । अभिमंत्रित गंगाजल, पुष्प, तुलसीदलादि का स्पर्श प्रेतों के लिए अतिशय पीडा उत्पन्न करने वाला होता है । अत: प्रेतबाधा दूर करने में गुह्मवादी इन पदार्थों का उपयोग करते हैं। भोग-विलास में रमण करनेवाले प्राणी ही मृत्यु के बाद प्रेतदेह से भटकते हैं। सूक्ष्मशरीर में भी इनकी इच्छा, भावना, क्रिया, संकल्प स्थूल शरीर के समान ही होते हैं । ये भोगप्रिय होते हैं और तप के तेज को सहन नहीं कर पाते हैं । मनुष्य भोगलिप्त होकर इन प्रेतों को प्रश्रय देता है और तपोयुक्त होकर इनके आश्रय को उजाडता है । तपस्वी साधक जब अपने संपूर्ण स्वभाव-संस्कार को निर्मल करने का संकल्प लेता है तब उसके ही चित में प्रकाश और अंधकार के आग्रही व्यक्तित्व एक-दूसरे से उलझ जाते हैं। अंधकार, असत्य, स्वार्थ और इन्द्रिय लोलुपता के समर्थक प्रेत अधिकांशत: प्राणतत्व की निचली भूमि के होते हैं। समष्टि में इनका निवास प्राणजगत में होता है वहीं उच्चतर ज्ञान-चेतना से युक्त देवों का निवास मन-बुद्धि आदि के क्षेत्र में रहता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि साधक के मन में निवास करनेवाले एवं प्राण में निवास करने वाले देवता एवं असुरों का परस्पर विपरीत व्यक्तित्व एक-दूसरे के प्रति विद्रोही रुख अपनाता है । साधक अपने मन में उपस्थित आदर्श, सत्यसंकल्प, सत्य विचार को जब सत्य चेष्टा के रूप में परिणत करना चाहता है तब उसके प्राण में उपस्थित ये अशुद्ध संस्कारी सत्ता आज्ञापालन से इंकार कर देती है । इस प्रक्रिया में योगी को क्लेश उठाना पड़ता है । स्वच्छंदता, स्वेच्छाचारी भोगाभ्यासों का अभ्यस्त प्राण साधना के सुदीर्घ अवलम्बन से ही शुद्ध होता है। काम, हिंसा, आवेश, बलप्रयोग, वर्चस्व–स्थापना स्वार्थ हेतु नैतिक विचार, आदशों का त्यागादि स्वभाव प्राणज है । इन पर प्रभुत्व प्राप्ति का उपाय इनकी शुद्धि ही है जिसे प्राप्त करने में इनके समर्थक प्रेत को परास्त करना होता है। उनके प्रभावों के प्रति प्राण, मन, बुद्धि, की सहमति वापस लेनी होती है । अक्सर देखा जाता है कि साधक अपने विचार के द्वारा जिन तथ्यों से सहमत होता है क्रिया में उसी तथ्य के विपरीत आचरण करता है । इसका कारण क्रियात्मिका कोशिका में अंधकार के आग्रही सूक्ष्मात्माओं


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