निर्दयता की याद दिलाते हैं । वे कहते हैं- देखो तुम्हें जो इतना दुख हो रहा है, तुम भीषण रूप से जो सताये जाते हो उस दुख की मात्रा को देखकर हम भी द्रवित हो रहे है; हालाँकि हम शैतान हैं, हममें दया, प्रेम, करुणा का किचित भी लेश नहीं है कितु तुम्हारी दशा से हमारा कठोर हृदय भी पिघल रहा है परंतु तुम्हारा परमेश्वर कितना क्रूर है जो तुम्हारे दुख से दुखी नहीं होता— तुम्हें इस हाल में छोड़ दिया है । ऐसा कह कर वह परमेश्वर को ही गाली देने लगता है, साधना-उपासना के औचित्य की निंदा करने लगता है । किंतु योगी जानते हैं कि अधोगति को प्राप्त प्रेतों के प्रेम में सच्ची सहानुभूति नहीं- कुट द्वेष ही भरा रहता है । जो साधक सूक्ष्मजगत के इन गहन रहस्यों से परिचित नहीं होते हैं, धैर्य, साहस से युक्त नहीं होते हैं वे प्रेतों की प्रताड़ना से डरकर या प्रेरणा से प्रभावित होकर आध्यात्मिक संयम-नियम में ढिलाई कर देते हैं; साधना के मध्य उत्पन्न होने वाले उत्पात से घबड़ाकर साधना ही छोड़ देते हैं; अपने सांसारिक जीवन को लुट जाने को भय से प्रेत को प्रत्येक आदेश का अनुपालन करने लगते हैं । इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि ईश्वरविरोधी सत्ताओं की जीत होती है- उनका षड्यंत्र, कुचक्र सफल होता है किंतु जो साधक साधना मार्ग में दूर तक निकल गये हैं जिनके अनाहत, विशुद्ध आदि उध्र्व-चक्र का उद्घाटन हो गया है, जिनके साथ ईश्वर ने संवाद स्थापित कर लिया है ऐसे साधकों के मन में यदि कभी दुष्ट शक्तियों की कुमंत्रणा प्रभावी होने लगती है तो उन्हें हृदयस्थ ईश्वर की वाणी प्रकाश दिखलाती है । दैवधर्म के शाश्वत फल को इंगित कर पथ-परिवर्तन करने से रोकती है ।
एकतरफ, शैतानी प्रेतों के द्वारा दिया जाने वाला सुख का सद्य: प्रलोभन और दूसरी तरफ वर्तमान दुख के प्रति देवों का उदासीन रवैया और भविष्य-सुख के संकेत के बीच साधक का विवेक चुनाव करने को स्वतंत्र होता है । उनके पास यह विकल्प होता है कि वे परमेश्वर-प्राप्ति की इच्छा का त्यागकर भोग-विलास, ऐशो-आराम का जीवन जिएँ । क्ट-कपट, हिंसा, वासना का रास्ता अपनाएँ । ऐसा करते ही यह संभव है कि उनकी मानसिक, शारीरिक व्यथा में कुछ काल तक कमी आ जाये,