प्रकट करता है। यह शरीर से चिपका हुआ अनुभूत होता है। रबड़ जैसी कोई चितकबरी आकृति, चिपचिपा, लाल ब्लाडर जैसा या काली छाया के रूप में पाप को देखा जाता है । जब इसे साधक अपने शरीर से निकालकर फेंक देना चाहता है तो अपने ही अंगों को पाप के साथ झूलते हुए पाता है । कोई अपने ही गात को आखिर किस प्रकार काटे ! जब प्रारब्धजनित पाप का भोग उपस्थित हो जाता है तब उसका निवारण किसी भी उपाय से संभव नहीं होता है । स्वयं भागवत शक्ति भी पाप को बहिष्कृत नहीं करती है। क्रियात्मक, भावात्मक एवं विचारात्मक पाप के भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं। ये जन्म-जन्मांतर से संचित होते हैं। जन्मान्तर में किये गये पाप कर्म का संस्कार अन्त:करण में पापमय संकल्प को उत्पन्न करता है। इन्हीं संकल्प से एकाकार होकर, समान वृत्ति वाले प्रेत मनुष्य में क्रियाशील होते हैं। इसी के कारण बुद्धि विकृत होती है, मन में पापमय संकल्प उठते हैं एवं प्राण में पापकर्म चरितार्थ होता है । साधक ज्यों-ज्यों स्वयं को पापमुक्त करने हेतु तपस्या करता है त्यों-त्यों पाप एक करण से दूसरे करण में स्थानांतरित होता है। बुद्धि यदि पापमय विचार से मुक्त हो जाती है, वह विवेक परायण होकर यदि अंधकार और प्रकाश में विभेद करने लगती है तो पाप का प्रकोप मन पर अधिक हो जाता है जिसके कारण मन में आकुलता, घबराहट, बेचैनी, अशांति आदि के साथ अन्यान्य मानसिक क्लेश की वृद्धि हो जाती है। मन में पापपूर्ण संकल्पों को प्रेत द्वारा उभारने की चेष्टा होती है । जब साधक मन को एकाग्र कर उसे पापमय संकल्प से मुक्त करता है तो पाप का स्थानांतरण प्राण में हो जाता है । इसके फलस्वरूप प्राणिक आवेश, उग्रता, मूढ़ता में वृद्धि के साथ-साथ उत्साह, बल, वीर्य, धैर्य, सहनशीलतादि में कमी देखी जाती है । सम्यक कर्म से उदासीनता, अवसाद, क्षोभ, हिसा आदि विकारों में वृद्धि होती है। प्राण में उपस्थित पाप आलस्य, तन्द्रा, निद्रादि तामसिक प्रवृत्ति को प्रकट होने का अवसर देता है एवं उध्र्व चक्रों से अवतरित होते हुए तेज को सहन नहीं कर पाता है । यदि प्राणमय कोष को पाप के प्रभाव से मुक्त करने हेतु चेष्टा की जाती है, साधक के द्वारा यत्किचित भी अशुभ कर्म का संपादन नहीं होता है तो पाप का भोग स्थूल शरीर